पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३२६

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दर्शन जीवन-नाव अँधेरे अन्धड मे चली। अद्भुत परिवत्तन यह कैसा हो गया। निमल जल पर सुधा भरी है चन्द्रिका, बिछल पडी, मेरी छोटी सी नाव भी। वशी की स्वर लहरी नीरव व्योम मे- गूंज रही है, परिमल पूरित पवन भी- खेल रहा है जल लहरी के सङ्ग मे। प्रकृति भरा प्याला दिखलाकर व्योम मे- वहकाती है, और नदी उस ओर ही- बहती है। खिडकी उस ऊँचे महल की- दूर दिखाई देती है, अब क्यो रुके- नौका मेरी, द्विगुणित गति से चल पडी। किंतु किसी के मुख की छवि किरणें घनी, रजत रज्जु सी लिपटी नौका से वही, बीच नदी मे नाव किनारे लग गई। उस मोहन मुख का दशन होने लगा। झरना ।। २६९।।