मै की मेरी नेतनता सबको ही स्पश किये सी मन भिन्न परिस्थितियों की है मादक घुट पिये सी (आनन्द) यही नहीं अपितु- हम अन्य न और कुटुम्बी हम केवल एक हमी है' तुम सब मेरे अवयव हो जिसम कुछ नही कमी है (आनन्द) समष्टि चेतना, युगानुभूति और आत्मानुभूति मे समाना जीवन्त रहती है प्रश्न येवल अभिसुप्ति और जागरण का है । कदाचित इसीलिये कहा है "आत्मा की मनन शक्ति की वह असाधारण अवस्था जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व मे सहसा ग्रहण वर लेती है काव्य म सकरपात्मक अनुभूति कही जा सकती है" "असाधारण अवस्था युगो की समष्टि अनुभूतियो मे अतर्निहित रहती है क्योकि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान कोई व्यक्तिगत सत्ता ही वह एक शाश्वत्त चेतनता है, या चिन्मयी ज्ञानधाग है, जो व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रा के नष्ट हो जाने पर भी निविशेष रूप से विद्यमान रहती है-" (काव्य और कला)। नितराम् ऐसी निष्कप दृष्टि-सम्पन अनुभूति के अभिव्यक्ति की एक सहज लोलधारा को किसी वादसीमा मे रखना स्वयमेव विवादग्रस्त होगा। प्रत्येक समस्या के मूल मे क्या होता है ? विषमता । हा वह विषमता ही तो जो सभी स्तरो पर चाहे वे भावो को हो, विचारो की हो, व्यवहार की हो, सग परख हो अथवा नैसर्गिक अपने अनेक रूपा मे साकार हो समस्या के कलेवर गढती है। इसकी व्याप्ति कुछ ऐसी गम्भीर हो गई कि यह विश्व के अनुप्राणन की सत्ता जैसी लगने लगती है । इसकी प्रभाव- परिणति कही व्यथा के रूप मे तो कही सुख के रूप म होती है उभय मे वस्तु तत्व भूत वेदना रूपेण सुखदुख को अकस्य किये विषमता ही रहती है। विपमता की पीडा से व्यस्त हो रहा स्पन्दित विश्व महान यही दुख सुख विकास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान नित्यसमरसता का अधिकार उमडता कारण जलधि समान व्यथा से नीली लहरो बीच बिसरते सुख मणिगण द्युतिमान (श्रद्धा) पदाथ के मौलिक धम और गुणो मे एक सहज सुसगठित विपमता से विश्व की उत्पत्ति बताई गई है और उसके एक सुनियोजित साम्य से १ 'हमी स तात्पय "हम ही का नही अपितु आदि-हा त समस्त वण विकल्प चवलीकृत पूर्णाहताभिमानी अवयवी से समीचीनतर है । प्रसाद वाङ्गमय ॥४०॥
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