ममस्या को मौलिक स्तर पर ग्रहण करने के अथ उसे वत्तमान मे देखना होगा और उसके अति-हेतु के अन्वेषण मे अतीत की ओर भी जाना पड सकता हे, कारण, अनागत को आशा के उज्जवल आलोक में और अनुकूल बनाने की प्रवृत्ति ही मानी समष्टि-चेतना के विकास की जीवन शक्ति है। कवि की युगानुभूति और आत्मानुभूति को पृथकश देखना और मानना परस्पर दृष्टि से उभय की उपेक्षा और कवि की तिष्ठा का विग्वण्डन करना है । यह भी माहित्य मे सकोचमयी धारा का ही प्रभाव है जो इयत्ताजी के पायक्य मे वह चक्रवत्तित्व के किंवा व्यक्तिनिष्ठ केन्द्रीकरण के गीत गाती है, पूरक प्रसग मे अहकार के तोपाथ दान महादान की महिमा बखानती है युगानुभूति और युगावबोध, आत्मानुभूति एव आत्मवाय का सावरणीकरण नहीं हाने देती। दान की महिमा से दाता मे स्वगकामिता भर उसे एक और जहा ऐहिक- दुष्कृतो से निश्चिन्त (प्रकारन्तरेण प्रोत्साहित भी) करती है वही दूसरी ओर समाज मे दीनता का अनुमोदन भी करती है। जयपाथक्यमयी विक्रपानुभूत्ति इन परिणामा को ले कर गठित साहित्य से युगसेवा कहा तक हो सकेगी, विचारणीय है। किन्तु, सकरपमयो विकामोन्मुखी धारा आते ही कह देती है- अपने म सव कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा यह एकान्त स्वाथ भीषण है अपना नाश करेगा औरो को हसते देसो मनु हसो और सुख पाओ अपने सुग्व को विस्तृत कर लो मबको सुखी बनाओ (कम) शक्ति-साधनो के केन्द्रीकरण से मानव समाज की प्रत्यह बढतो विपमता एव वर्गोत्पीडन अनदेवे नहीं रह सकते फिर सभी स्तरो पर उनका सवथा निरास एकायुप और एक देशीय एव सास्थानिक उपचारा से सभव नही । यत 'यह मनुष्य आकार चेतना का है विकसित' अत चेतना को अथत उपचीण होना चाहिये वही से क्रान्ति की गोमुखी भी है जहां से निसृत भागीरथी मानवता का आप्यायन करती है और, विश्वकरुपी विषमता का तभी प्रक्षालन सभव है। पदाय स्तर पयन्त पुष्टत एक परिशुद्ध दगा को अवतारणा चेतना के उपेक्षित, विभक्त और अनात रहने से अवधाय नही । सुतगम्, विश्ववपुपो चेतना के जागरण म, अनुभूति की चरमावस्था मे, मान को तीनतम दशा म यह मत्य सम्भावित है (अभ्रान्तत)। प्राक्क्थन ॥३९॥
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