पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३४९

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बिन्दु रेमन कर तू कभी दूर का प्रेम। निष्ठुर ही रहना, अच्छा है, यही करेगा क्षेम ॥ देखन, यह पतझड बस त एकत्रित मिला हुआ ससार । किसी तरह से उदासीन ही कट जाना उपकार ।। या फिर, जिसे चाहतू, उसे न कर आँखो से कुछ भी दूर। मिला रहे मन मन से, छाती छाती से भरपूर ॥ लेकिन परदेसो की प्रीति उपजत्ती अनायास ही आय । नाहर नख से हृदय लडाना, और कहूँ क्या हाय ।। प्रसाद वाङ्गमय ।। २९४॥