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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३६५

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लहरो मे प्यास भरी है है भंवर पात्र भी खाली मानस का सब रस पी कर लुढका दी तुमने प्याली। किजल्क जाल हैं विखरे उडता पराग है रूखा है स्नेह सरोज हमारा विकसा, मानस मे सूखा । छिप गयी कहा छू कर वे मलयज की मृदुल हिलोरें क्यो घूम गयी हैं आ कर करणा कटाक्ष की कोरें। विस्मृति है, मादकता है मूच्छना भरी है मन में कल्पना रही, सपना था मुरली बजती निजन मे। हीरे सा हृदय हमारा कुचला शिरीप कोमल ने हिमशीतल प्रणय अनल वन अब लगा विरह से जलने । अलियो से आख बचा कर जब कज सकुचित होते धुंधली संध्या प्रत्याशा हम एक एक को रोते। प्रसाद वाङ्गमय ॥ ३१२॥