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नवनीत हृदय जल उठा स्नेह, दीपक सा, था मेरा अब शेप घूमरेखा से चित्रित कर रहा अंधेरा। नीरव मुरली, कलरव चुप अलिकुल थे बन्द नलिन मे कालिन्दी बही प्रणय की इस तममय हृदय पुलिन मे । कुसुमाकर रजनी के जो पिछले पहरो मे खिलता उस मृदुल शिरीप सुमन सा में प्रात धूल मे मिलता। व्याकुल उस भघु सौरभ से मलयानिल धीरे धीरे निश्वास छोड जाता है अब विरह तरङ्गिनि तीरे । चुम्बन अक्ति प्राची का पीला कपोल दिखलाता मैं कोरी आंख निरखता पथ, प्रात समय सो जाता। श्यामल , अचल धरणी का भर मुक्ता आंसू कन से छूछा बादल बन माया में प्रेम प्रभात गगन से । विप प्याली जो पी ली थी बनी नयन मे सौन्दर्य पलक प्याले का अब प्रेम बना जीवन मे। वह मदि आसू ॥३१३॥