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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३८०

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आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अञ्चल फिर स्वण-सृष्टि सी नाचे उसमे करणा हो चचल मधु ससृति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन मे फिर से मरन्द उद्गम हो कोमल कुसुमो के वन मे। फिर विश्व मांगता होवे ले नभ की खाली प्याली तुम से कुछ मधु की बूंदें लौटा लेने को लाली । फिर तम प्रकाश झगडे मे नवज्योति विजयिनी होती हँसता यह विश्व हमारा बरसाता मजुल मोती। प्राची के अरुण मुकुर म तुम्हारा उस अलस उपा मे देखू अपनी आखो का तारा। सुन्दर प्रतिबिम्ब कुछ रेखाएं हो ऐसी जिनमे भाकृति हो उलझी तब एक झलक | वह कितनी मधुमय रचना हो सुलझी। जिसमे इतराई फिरती नारी निसग सुन्दरता छलकी पडती हो जिसमे शिशु की उमिल निमलता। आसू ।।३२७॥