पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३८१

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आखो का निधि वह मुख हो अवगुण्ठन नील गगन सा यह शिथिल हृदय ही मेरा खुल जावे स्वय मगन सा । मेरी मानसपूजा का पावन प्रतीक अविचल हो झरता अनन्त यौवन मधु अम्लान स्वण शतदल हो। कल्पना अखिल जीवन की किरनो से हग तारा की अभिषेक करे प्रतिनिधि बन आलोकमयी धारा की। मधुर हो जावे निदय तन्मयता वेदना मेरी मिल जावे आज हृदय को पाऊँ मै भी सहृदयता। मेरी अनामिका सङ्गिनि । सुन्दर कठोर कोमलते । हम दोनो रहे सखा ही जीवन-पथ चलते चलते । ताराओ की वे रातें क्तिने दिन-कितनी घडिया विस्मृति मे बीत गईं वे निर्मोह काल की कडियाँ । प्रसाद वाङ्गमय ।। ३२८॥