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ढील। हे सागर सङ्गम अरुण नील। अतलान्त महा गभीर जलधि- तज कर अपनी यह नियत अवधि, लहरो के भोपण हासो मे, आकर खारे उच्छ्वासो मे युग युग को मधुर कामना के- बन्धन को देता जहाँ है सागर सङ्गम अरण नोल । पिङ्गल विरनो सो मधु-लेखा, हिमशैल बालिका को तूने कब देखा। पलरव सगोत सुनाती, विस अतीत युग की गाथागाती आती। आगमन अनन्त मिलन बनकर- विसराता पेनिल तरल पोल। हे सागर सङ्गम अरण नील ! लहर ॥३४१॥