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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३९३

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ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक | धीरे धीरे । जिस निजन मे सागर लहरी । अम्बर के कानो मे गहरी- निश्छल प्रेम-कथा कहती हो, तज कोलाहल की अवनी रे। जहा साँझ सी जीवन छाया, ढीले अपनी कोमल काया, नील नयन से ढुलकाती हो, ताराओ की पांत घनी रे। जिस गम्भीर मधुर छाया मे - विश्व चित्र-पट चल माया मे- विभुता विभु सी पडे दिखाई, दुख सुख वाली सत्य वनी रे। श्रम विश्राम क्षितिज वेला से- जहाँ सजन करते मेला से- अमर जागरण उपा नयन से- बिखराती हो ज्योति घनी रे। प्रसाद वाङ्गमय ।।३४०॥