पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४०९

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जगती को मगलमयी रूपा बन, करणा उस दिन आई थी। जिसके नव गैरिक अचल की प्राची में मरी ललाई थी। भय सकुल रजनी बीत गई, भय की व्याकुलता दूर गई, घन तिमिर भार के लिए तडित् स्वर्गीय किरण वन आई थी। खिलती पंखुरी पकज-वन को, खुल रही आख ऋपि पत्तन की, दुग्म की निममता निरख कुसुम-रस के मिस जा भर आई थी। क्ल-यल नादिनि बहती बहती- प्राणी दुख की गाथा कहती- वरणा द्रव होकर शान्ति-वारि शीतलता सी भर राई थी। पुलरित मल्यानिल कूलो मे भरता मजलि था फूलो म स्वागत या अभया वाणो का निष्ठुरता लिये विदाई थी। प्रमाद वाहमय ॥३५८।।