पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४०८

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अपलक जगती हो एक रात ! सर मोये हो इस भूतल मे, अपनी निरीहता सम्बल म चल्ती हो कोई भी न वात । पय मोये हो हरियाली मे, हो सुमन सो रहे डाली में, हो मलस उनीदो नन्वत पांत । नीरव प्रान्ति का मौन वना, चुपो विमरय मे विछल छना, परना हो पयो मरय-वात। वक्षम्पर म जो छिपे हुए- मोते हो हृदय अभाव रिए- आये स्वप्नो वा हो न प्रात। सदर ॥३५७॥