पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४२

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यह प्राक्तन भाव नही नवीन विकसित दृष्टि है जिसकी उपेक्षा उसे अवास्तविक नही सिद्ध करेगी । मानवी सामूहिक चेतना के स्तर को रपश करती इतिहास की परिधि का उल्लेख सम्भावित सशय के निवारणाथ आमुख मे प्रस्तुत है । सदैव से वस्तुनिष्ठ इतिहास घोखने की रूढ परम्परा के प्रति यह अश्रुतपूर्व विद्रोही स्वर है न कि कोई अनेतिहासिक अथवा प्राक्तन भाव । कामायनी अपनी साथकता इस सन्दभ मे स्पष्ट करती है-'चेतना का सुन्दर इतिहास निखिल मानवभावो का मत्य' । वस्तु को प्रतीयमान जगत का हेतु मानने पर उस वस्तु का वस्तुत्व भी जान लेना होगा जो अभी विज्ञान ( भौतिक) की शोधशाला से प्रमाणित और स्थिर नही हो पाया है और कदाचित् शक्ति की प्रारम्भिक कक्षाआ मे ही अभी वह घूम रहा है । भौतिक विज्ञान के समक्ष अन्ततो गत्वा एक दुरूह ग्रन्थि चेतना की पडी है जिसे वह कैसे सुलझाये-सकारे, शतिया से यह एक मौलिक प्रश्न बना है। चेतना को सरकाले मे वस्तु- हेतुत्व समाप्त होता है और पदाथ सक्रियता के प्रसग म चेता की उपेक्षा नही हो सकती । सुतराम् उसे, अन्तजगत-बाह्यजगत के मध्य और उन्ही का आश्रित एक स्फुरण मान लिया गया ससकोच और अनिवायतावश । और फिर यह कहने की सुविधा हो गई कि वस्तु एव वस्तु महति का परिणाम चेतना है । किन्तु वस्तु को सात्म-सक्रिय मानने से विरक्ति है । सशय उठता है कि यदि वस्तु हेतु है, तो उसे स्वाधीन होना चाहिये फिर चतना से चालित और पुरपाचीन क्यो ? विन्तु, विज्ञान को प्रगति जैसे जैसे सूक्ष्मता की थोर अग्रसर हो रही है उसमे तत्व जिज्ञासा निष्ठावती हो रही है यह मानव समाज के लिये शुभ है। द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते-होते स्थूल स्तर का भौतिक विज्ञान (जिसके अथ अन्नमय कोष एक पारिभापिर शब्द होगा) अगले सूक्ष्म स्तरो के अशोलन मे निष्ठावान हो गया, और प्राणिक इयत्तामा की प्रतीति उसे प्रत्यक्ष हाने लगी। सोवियत वैज्ञानिक प्रैशिको ने पहली बार पदाथ की पांचवी स्थिति यायोप्लाज्मा को पाया। यही नहीं भारी शक्ति वाले वैद्युतिक उपकरणा की सहायता से भय और आसाश-देह वाले फोटो ग्राफ वहाँ 'क्रीिलियन औरा' के तकनीक से लिये गये हैं यद्यपि ये स्तर अपेक्षाकृत सूक्ष्म रहने पर भी चेतना के पदायित स्तर ही हैं और मनोनय विज्ञानमय-आनन्दमय स्तर तो सभी बहुत दूर हैं रितु भौतिक स्निान उनके द्वार सटपटा रहा है, यह कम नहीं । जड और चेतन को परिभाषा मे, चेतन की विरक्षणता स्वाधीनता प्राक्वथन ॥४९॥