पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३९

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तृण बह जाता जैसे वैसे में विचारो मे ही तिरती सी फिरती। वैसी अवहेलना थी यह मेरी शनुता की इस मेरे रूप की। आज साक्षात होगा क्तिने महीनो पर लहरी-सदृश उठती सी गिरती सी मैं अद्भुत । चमत्कार ॥ दृप्त निज गरिमा म एक सौंदयमयी वासना की आधी सी पहुँची समीप सुलतान के। तातारी दासियो ने मुझको झुकाना चाहा मेरे ही घुटनो पर, किन्तु अविचल रही। मणि-मेसला म रही कठिन कृपाणी जो चमकी वह सहसा मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को। किन्तु छिन गई वह और निस्पाय मै तो ऐठ उठी डोरी सी, अपमान-ज्वाला म अधीर होके जलती। अन्त करने का और वही मर जाने का मेरा उत्साह मन्द हो चला । उसी क्षण वचकर मृत्यु महागत से सोचने लगी थी मैं- "जीवन सौभाग्य है, जीवन अलभ्य है।" चारो ओर लालसा भिखारिणी सो मागती थी- प्राणो के कण-कण दयनीय स्पहणीय अपने विश्लेपण रो उठे अकिंचन जो- "जीवन अनन्त है, इसे छिन्न करने का क्सेि अधिकार है ?" जीवन की सीमामयी प्रतिमा क्तिनी मधुर है? विश्व भर से मै जिसे छाती मे छिपाये रही। क्तिनी मधुर भीख मांगते हैं सब ही प्रसाद वागमय ।।३८८॥