पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४३८

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पद्मिनी की भूल जो थी उसे समझाने को सिंहिनी सी दृप्त मूर्ति धारण कर सन्मुख सुलतान के मारने की, मरने की--जटल प्रतिज्ञा हुई। उस अभिमान मे मैंने ही कहा था-छाती ऊंची कर उनसे- "ले चलो मैं गुजर की रानी हू, कमला हूँ' वाह री विचिन मनोवृत्ति मेरी। कैसा वह तेरा व्यग्य परिहास शील था उस आपदा मे आया व्यान निज रूप का। ? ? रूप यह। देखे तो तुरुप्पपति मेरा भी यह सौन्दय देखे, देखे यह मृत्यु भी क्तिनी महान और क्तिनी अभूतपूर्व बन्दिनी मै बैठी रही देखती थी दिल्ली केसी विभव विलासिनी। यह ऐश्वय की दुलारी, प्यारी क्रूरता की एक छलना सी, सजने लगी थी सन्ध्या मे। कृष्णा वह आई फिर रजनी भी। खोलकर ताराओ की विरल दशन पक्ति अट्टहास करतो थी दूर मानो व्योम मे । जो सुन न पडा अपने ही कोलाहल मे । कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति क्षण भर चाहती जगाना में सुलतान ही के उस निमम हृदय म, नारी में। क्तिनी अवला थी और प्रमदा थी रूप की। साहस उमडता था वेग पूण ओघ सा किन्तु हलकी थी मैं, लहर ॥३८७॥