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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४४५

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सोचा यह उस दिन, जिस दिन अधिकार क्षुब्ध उस दास ने, अन्त किया छल से काफूर ने अलाउद्दीन का, मुमूपु सुलतान का। आंधी मे नृशसता की रक्त-वर्षा होने लगी रूप वाले, शील वाले, प्यार से पले हुए प्राणी राज-वश के मारे गये। वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी। शक्तिशाली होना अहोभाग्य है और फिर वाधा-विघ्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का सबल विरोध करने मे कैसा सुख है ?- इसका भी अनुभव हुआ था भली भाति मुझे किन्तु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की । जिस दिन सुना अकिञ्चन परिवारी ने, आजीवन दास ने, रक्त से रंगे हुए, अपने ही हाथो पहना है राज का मुकुट । अन्त कर दास राजवश का, लेकर प्रचड प्रतिशोध निज स्वामी का मानिक ने, खुसरू के नाम से शासन का दण्ड किया ग्रहण सदप है। उसी दिन जान सकी अपनी मै सच्ची स्थिति मैं हूँ विस तल पर सैकडो ही वृश्चिको का डक लगा एक साथ में जो करने थी आई उसे क्यिा मानिक ने। ? खुसरु ने॥ उद्धत प्रभुत्व का वात्याचक्र | उठा प्रतिशोध-दावानल मे कह गया अभी अभी नीच परिवारो वह 1 प्रसाद वाङ्गमय ।। ३९४॥