पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४४६

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1 "नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप है जिसमे पवित्रता की छाया भी पडी नही । जितने उत्पीडन थे चूर हो दवे हुए, अपना अस्तित्व हैं पुकारते नश्वर ससार मे ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि हैं चाहते।" "लूटा था दृप्त अधिकार ने जितना विभव, रूप, भील और गौरव का आज वे स्वतन्त्र हो निखरते हैं । एक माया-स्तूप सा हो रहा है लोप इन आँखो के सामने । देख कमलावतो। टुलक रही है हिम-विन्दु सी सत्ता मौन्दय के चपल आवरण की। हंसती है वामना को छलना पिशाची सी छिपकर चारो ओर ब्रीडा की अंगुलियाँ क्रती सकेत है व्यग्य उपहास में । ले चली वहाती हुई अघ के अतल म वेग भरी वासना। अन्तर शरभ के काले काले पङ्ख टक्ते हैं अन्य तम से । पुण्य ज्योति हीन क्लुपित मौन्दय का- गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा को धारा सा असफल सष्टि सोती- प्रलय की छाया मे। - लहर ॥३९५॥