पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४५५

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से प्रारम्भ होती है ठीक उसी के पहिले सामूहिक चेतना की दृढ और गहरे रगा की रेखाओ से, बीती हुई और भी पहले की बातो का उल्लेख स्मृति पट पर अमिट रहता है, परन्तु कुछ अति- रजित सा । वे घटनाएं आज विचित्रता से पूण जान पडती हैं। सम्भवत इसीलिए हमको अपनी प्राचीन श्रुतियो का निरत्त के द्वारा अथ करना पड़ा, जिससे कि उन अर्थों का अपनी वत्तमान रुचि से सामजस्य क्यिा जाय । यदि श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बडा ही भावमय और श्लाघ्य है । यह मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक इतिहास बनने म समथ ही सकता है। आज हम सत्य का अथ घटना कर लेते है। तब भी उसके तिथि क्रम मात्र से सतुष्ट न होकर, मनोवैज्ञानिक अन्वेषण के द्वारा इतिहास की घटना के भीतर कुछ देखना चाहते हैं । उसके मूल म क्या रहस्य है ? आत्मा को अनुभति । हा, उसी भाव के रूप-ग्रहण की चेष्टा सत्य या घटना बनकर प्रत्यक्ष होती है। फिर वे सत्य घटनाएँ स्थूल और क्षणिक होकर मिथ्या और अभाव म परिणत हा जाती है। किन्तु सूक्ष्म अनुभूति या भाव, चिरतन सत्य के रूप में प्रतिष्ठित रहता है, जिसके द्वारा युग युग के पुरपो की और पुरुपार्थों की अभिव्यक्ति हाती रहती है । जल प्लावन भारतीय इतिहास म एक ऐसी ही प्राचीन घटना है, जिसने मनु को देवा से विलक्षण, मानवा की एक भिन्न सस्कृति प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया । वह इतिहास ही है । 'मनवे वे प्रात इत्यादि से इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण के आठवें अव्याय मिलता है । देवगण के उच्छृ खल स्वभाव, प्रसाद वाङ्गमय ॥ ४०६ ।।