बनाकर ममष्टिपरक था गाथा काल मे वह व्यक्तिनिष्ठ होने लगा जिनम मानवी अन्तद्वन्दो के बाह्य प्रतिनिधि रूप शूरो और समाज पर छाप छोड़ने वाले विद्वानो समर्यो और असमर्थों के संघर्ष की भावप्रवण छन्दमयी रचनाओ (विशेषत आर्याछन्द) में वास्तविक चरित्र अपनी गाथायें पहने लगे । काल की शू खला न ढूंढ पाने पर उनकी सत्यता सहसा और सवथा अनैतिहासिक-अवास्तविक नही हो सकती। ऐसो गाथाये गाने वाले आरयार सहिता भाग नहीं बन पाये क्याकि उनमे व्यक्ति निष्ठा थी घटनापरक सत्य के बहिरगी इदबोध से उनक आयतन गठित थे और लोकचित्र के परिवतनशील पट उनकी रंगभूमि रहे जब कि ऋचा भाग लोक के शाश्वत मूल्यो के आन्तरात्मिक उद्ग्रन्यन म सचेष्ट रह रूपकीय सकेतो से प्रतीको के रूपमे इन्द्र, वरुण आदि द्वारा आत्मा देह आदि के परिकर मे समप सन्देश देता है। काव्य-चेतना की वग निष्ठा धीरे धीरे उपरत होने लगी, उमकी भूमिका लोक-मगल की अभीप्मा लेने लगी, किन्तु वस्तुत अभिजात लोक मगल की परिभाषा अभी अधूरी थी। देश और जाति के घेरे को तोड समग्र मानव जाति और सकल मेदिनी मण्डल को व्याप्त बनाते अतीत और अनागत को अपने वत्तमान मे खीचकर काव्य-चेतना को सावभौमिकी और सार्वायुपी बनाना सामथ्य-पराक्रम की भागीरथी बहाना था। युग की दशाओ और मानवी विकास के उपक्रम की व्याकुल पुकार अब काव्य चेतना के उपकण्ठो पर गूंजने लगी। मनुज की पराधीनता उमकी सावदेशिकी दरिद्रता अधिपति-अधिकृत के विपमा- वस्थान जनित शोपण अब उसकी विचारपद्धति के आयाम बदलने लगे। जीवन की परिभाषा उतरोत्तर व्यापक होतो दृष्टि और मूल्यो मे भारी परिवत्तन करने लगी। पदाथ-सम्पदा रेकर सृजन और सक्षय के चरणो मे डग भरता आर्थिक सामाजिक परिवेश द्रुततर हो उठा पशु मनुष्य के कर्मों का यात्रिकीकरण भावो का भी यात्रिकीकरण करने लगा और यन्त्र अध्यव साय बौद्धिक स्तर की सीमा पर टकराने लगा। सुतराम समाज के वर्गों की परिभाषा सास्कृतिक मूल्यों के आधार पर अहर्निश परिवर्तित होती सारहीन हो उठी। बस्तुत वग सधप से अधिक तीव्र और महत्त्व पूर्ण हो उठा अपनी ज्वाला से जलते-बुझते वगसस्थारो का सघष । कामायनी मे भी "नतित नटेश" ये युगलपाद सहार और सृजन के ही हैं किन्तु नर्तित नटेश की प्राविधिक आस्या में वे सभी कोटियां उनके प्राक्कथन ॥५५॥
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