पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४५

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होने की सभावना के दिन अभी युगो वाद लौटने वाले थे तब सामूहिक चेतना विसीण, अभिसुप्त और अगठित थी, व्यस्त थी किन्तु भावी भविष्य के उत्तरदायित्व सभालने के लिये स्पन्दित होती अभी एक चैतस- पीठिका प्रस्तुत हो रही थी। सुतराम्, सामान्य काव्य चिन्तन को तत्र उसको वाणी बोलनी थी जिनके अन पर वह पलता था। सम्पक और विचार के विनिमय साधन सीमित थे । तीन वर्षों मे हुएनत्साग चीन से भारत आ सकते थे और अतिशा को वहा तक पहुँचने मे सकारण और भी अधिक समय लगता था। वर्षों को दूरी मासो मे सिमटी मास दिवस वने जिनके काम मुहूत्त करने लगे और अब मानव चन्द्रधरा की रज का स्वामी हो चुका । उस समय तो वैसी बात थी नही तब तो सूर के कृष्ण का मचलना कि 'मैया में तो चन्द्र खिलौना लेहो' एक अपूरणीय माग के साथ ही कदाचित भव के सुदूर भविष्य की परिभाषा भी थी जो आज वत्तमान बन गई । अतएव, काव्य केद्र महानो, शक्ति-साधन सम्पन्नो के क्रान्तिवृत और नाडी जाल के सम्पात-बिन्दु-स्वरूप राहु से ग्रस्त रहा। उनकी इच्छा-आवश्यक्ता की पूर्ति का साधन होकर, उनको नाराशसियो से लोकमानस को प्रभावित रखने का यन्त्र बना रहा । जव इससे अवकाश मिल तब आत्मा-परमात्मा, ब्रह्म माया, निगुण-सगुण की व्यायामशाला में उसने लोकमानस की प्रतिभाओ का उपयोग किया । समाज के बौद्धिक योगक्षेम का स्वरूप तब कुछ और था जो पिछली कई शतिया म केवल रामचरितमानस का चित्य बन सका उसके कवि तुलसो सामान्य जीवन के तिक्त-मधुर फल खाकर जिये, किसी दरबार के मन पर नहीं पले । समाज की चैतस आवश्यकताओ की पूर्ति के लिये, सामूहिक चेतना के अव्यक्त शक्तिया को परिणति मे अनुरूप प्रतिमा का गठन होता हैं जो व्यक्ति निष्ठ नही समष्टि-परक रहता है इसीलिये वैसे व्यक्तित्व समष्टि की सम्पदा होते हैं और उनमे निहित श्रेयज्ञान की सत्ता उन व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रो के नष्ट हो जाने पर भी निविशेष रूप से विद्यमान रहती है सस्थित रहती है । वैसो श्रेयज्ञान की सत्ता ने प्रसाद के प्रेय कलेवर मे अधिष्ठान ग्रहण किया मानव चिन्तन के विकास में यह एक ऐसी घटना हुई जिसके पूर्वापर प्रभाव का निरपक्ष और पूरा पूरा आक्लन अभी शेप है । मौलिक अथ मे काव्य जरा मरण से अबाधित सामथ्य का का पर्याय है पश्य देवम्य काव्य न ममार न जीयत' (ऋक् १० ५५ ५) । सहिता काल म काव्य वस्तु, जातीय सपद विपद उद्भव पराभव और योगक्षम फो अन्तरात्मिक एंव सावभौम स्तर पर चिन्त्य 1 प्रसाद वाङ्गमय ॥५४॥