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हिम गिरि के उत्तुग शिखर पर, वैठ शिला को शीतल छाँह, एक पुरुष, भीगे नयनो से, देख रहा था प्रलय प्रवाह - नोचे जल था, ऊपर हिम था, एक तरल था, एक संघन, एक तत्त्व को हो प्रधानता कहो उसे जड या चेतन। दूर दूर तक विस्तृत था हिम स्तब्ध उमो के हृदय समान, नीरवता सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान । तरुण तपस्वी सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान, नीचे प्रलय सिंधु लहरो का होता था सकरण अवसान। उमी तपस्वी से लम्वे, थे देवदारु दो चार जैसे पत्थर खडे, हिम धवल, बत्न यो ।