पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४६३

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अवयव की दृढ मास-पेशियां, कजस्वित था वीय्य अपार, स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का होता था जिनमे सवार। चिता कातर बदन हो रहा पौरप जिसमे आत प्रोत, उपेक्षामय यौवन का बहता भीतर मधुमय स्रोत । उधर बंधी महा-बट से नौका थी सूखे मे अब पडी रही, उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही । निकल रही थी मम वेदना, करणा विक्ल कहानी सी, वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती सी पहचानी सी।