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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४७१

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अधकार मे मलिन मित्र की धुंधली आभा लीन हुई, वरुण व्यस्त थे, घनी कालिमा स्तर स्तर जमती पोन हुई। पचभूत का भैरव मिथण, शपाओ के शक्ल-निपात, उल्का लेकर अमर शक्तिया खोज रही ज्या खोया प्रात । वार बार उस भोपण रख से कंपती धरती देख विशेष, मानो नील व्योम उतरा हा आलिंगन के हेतु अशेष । उधर गरजती सिंधु लहरिया कुटिल काल के जालो सी, चली आ रही फेन उगलती फैलाये व्यालो सी। धंसती घरा, धधकती ज्वाला, ज्वाला - मुखियो के निश्वास, और सकुचित क्रमश उसके अवयव का होता था ह्रास । • प्रसाद वाङ्गमय ॥४२४।।