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कण क्वणित, रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार, मुखरित था कलरव, गीतो मे स्वर लय का होता अभिसार । सौरभ से दिगत पूरित था, अतरिक्ष आलोक-अधीर, सब मे एक अचेतन गति थी, जिससे पिछडा रहे समीर । नतन, वह अनग पोडा अनुभव सा अग भगियो का मधुकर के मरद - उत्सव सा मदिर भाव से आवत्तन । सुरा सुरभिमय बदन अरुण वे नयन भरे आलस अनुराग, कल कपोल था जहा विछलता कल्पवृक्ष का पीत पराग । विक्ल वासना के प्रतिनिधि वे सब मुरझाये चले गये, आह | जले अपनो ज्वाला से, फिर वे जल मे गले, गये।" चिन्ता ॥४२१॥