पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सबल तरगाघातो से उस क्रुद्ध सिंधु के, विचलित सी व्यस्त महा कच्छप सी धरणी, कम चूम थी विकलित सी। बढ़ने लगा विलास वेग सा वह अति भैरव जल सघात, तरल तिमिर से प्रलय पवन का होता आलिंगन प्रतिघात । वेला क्षण क्षण निकट आ रही क्षितिज क्षीण फिर लीन हुआ, उदधि डुवाकर अखिल घरा को वस मर्यादा हीन हुआ। करवा दन करतो गिरती और कुचलना था मब का, पचभूत का यह ताडवमय नृत्य हो रहा था कर का।" दिन !!