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"एक नाव थी, और न उसम डाडे लगते, या पतवार, तरल तरगो म उठ गिर कर बहती पगली बारम्बार। लगते प्रबल थपेडे, घुघले तट का था कुछ पता नही, कातरता से भरी निराशा देख नियति पथ बनी वही । लहरें व्योम चूमती उठती, चपलायें असख्य नचती। गरल जलद की खडी झडी मे वूदें निज मसति रचती। चपलायें उस जलधि, विश्व में स्वय चमत्कृत हाती थी ज्यो विराट वाडव ज्वालाये सड-खड हो रोतो थी। जलनिधि के तल वासी जलचर विकल निकलते उतरातें, हुमा विलोडित गह तर प्राणी कौन कहा । कव । सुख पाते ? प्रमाद वाङ्गमय ॥ ४२६ ॥