हो आदशवादी धार्मिक प्रवचनकर्ता बन जाता है। वह समाज को कैसा होना चाहिये यही आदेश करता है। और यथाथवादी सिद्धान्त से ही इतिहासकार से अधिक कुछ नही ठहरता क्योकि यथाथवाद इतिहास को सम्पति है। वह चिचित्र करता है कि समाज कैसा है या था, किन्तु साहित्यकार न तो इतिहासकर्ता है और न धमशास्त्र प्रणेता'। इन दोना के कलव्य स्वतन्त्र हैं। साहित्य इन दोनो की कमी को पूरा करने का काम करता है। साहित्य समाज की वास्तविक स्थिति क्या है, इसको दिखाते हुये भी उसमे आदर्शवाद का सामजस्य स्थिर करता है । दुम-दग्ध जगत ओर आन दपूर्ण स्वग का एकीकरण साहित्य है इसीलिये असत्य अघटित घटना पर कल्पना को वाणो महत्त्वपूर्ण स्थान देती है, जो निजी सौन्दय के कारण सत्य पद पर प्रतिष्ठित होती है। उसम विश्व मगल की भावना ओतप्रोत रहती है।" (यथाथवाद और छायावाद) महाकाव्य के सम्बन्ध मे वहा ये पक्तियाँ मिलती हैं- 'मानव के सुरा-दुख की गाथायें गायी गई हैं। उनका केन्द्र होता या चोरोदात्त विख्यात लोकविश्रुत नायक । महाकाव्यो मे महत्ता की अत्यन्त आव- श्यक्ता है । महत्ता ही महावाव्य का प्राण है"। (आरम्भिक पाठ्यकाव्य) 'नाटक मे, जिसमें आनन्दपथ का, साधारणीकरण का, सिद्धान्त था, रघुतम के लिये भी स्थान था। प्रकरण इत्यादि मे जन साधारण का अवतरण किया जा सकता था, परन्तु विवेक परम्परा के महाकाव्यो मे महानो की ही चर्चा आवश्यक थी'। 'काव्यधारा मानव मे राम है-या लोकातीत पग्मशक्ति है इसी के विवेचा में लगी रही। मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है यह बोध यह रसानुभूति विवृत नहीं हो सकी। रस की प्रचुरता यद्यपि थी क्यो कि भारतीय रीति ग्रयो ने उन्हे श्रव्य मे भी पहले प्रयुक्त कर लिया था, फिर भी नाट्यरसो का साधारणीकरण उनम नही रहा'। (भारम्भिक पाठ्य काव्य ) ऊपर दिये गये उद्धरणा से (काव्य और क्ला तथा अ य निवन्ध के ) स्पष्ट होता है कि काव्य की १ सु० इतिवृत्तवशायातात्यवन्वाननुगुणा स्थिति, उत्प्रेन्याप्यन्तराभीष्ट रसाचित षयो नय (ध यालाक ३-११) कविनाकाव्यमुपनिवघ्नता सवात्मना रस परत पेण भवितव्यम् । ततिवृत्त यदि रमानुगुणास्थितिपश्येत्त-माभनत्वापि स्वत प्रतया रसानुगुण क्यान्तरमुत्पादयेत् । न हि कवेगितिवृत्तभावनिवहिण मिनित्प्रयोजनम् इतिहासाश्पतत्सिद्धे । (लाचन टीका) प्राक्कथन ॥५७॥
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