पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४९

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प्रयोजनीयता और कविरम के तद्यावधि आगत और प्रस्तुत स्वरूप कामायनी के कवि के निवप पर विश्वामागल्य के अथ श्रेय प्रेय सवित सुवण नहीं ठहरे फिर उनसे युग बोध की वैसी प्रतिमा क्या कर ढलती जिसके चरणो मे समस्या और समाधान के अक्षत पुष्प सज हो। काव्य जगत के चक्रवर्ती उन विवेक परम्परा वाले महत्ताप्राण महा काव्यो के माध्यम से मानवी सवेदनाओ की गाथा गाई गई जिनके नायण सुवण के मेरु हाते थे वसुधा के जलते रज-कण नहीं। वहाँ लघुतम के लिये कोई स्थान नहीं था उन नायको के अथ और समाज तन्न पृथक्-लक्षण विशिष्ट और परिग्रह विपुल होते थे जा कही-यही लोकोत्तर-सीमा का भी स्पश करते फिर लोकसामान्य चेतना के भावाभाव-गत कम्पनो की शुक्म्प-लहरी उनमे कैसे उठती? सुतराम् कामायनी के युग मे आममग्न लोकमगल हो पाव्य का प्रयोजन बना ( वह कामायनी जगत की मगल कामना अवेली) जिसको सहज प्रतिज्ञा को चरिताथ करने के लिये सरप की दिशा पक्डनी पड़ी और 'आत्मा की सकरपात्मक अनुभूति' का परिणाम काव्य पुरप का प्राण बना। मणि किरीटी चक्रवर्ती स्प म धीरोदात्त नायक अकेले अभिनय मे केवल स्वगत ही बोल सकता है सुतराम, नाटको मे जनसामान्य के विना काम नहीं चलता। और सामान्य-जन-सवेदन महाकाव्य मुख से नही बोल सक्ते, अत प्रयोजनीयता की दृष्टि से नाटक और का य की विधाओ के समवय से इस रूपक-वृत्ति वाले काव्य कामायनी की कल्पना साकार हुई जिसमे जनमामान्य-सवेदनो के मूलभूत-स्फुरण काव्य रग पर उपस्थित हो अपनी गाथायें गा सके। क्सिी घिसेपिटे टक्साली धीरोदात्त नायक को ले महाकाव्य के प्रस्तुति की तो वहां दृष्टि ही नहीं फिर वैसे लक्षण ढूँढने और पाने न पाने की बात ही व्यथ है । मौलिक दृष्टि यहां जनसामान्य को अतर्जात सवेदन गाथा पर है और उसी स्तर पर कामायनी के अनुनायर मनु का अभिनय सफल भी होता है। गत मन्वन्तर का घीरोदात्त मनु नये मवन्तर म सामा य-जन की भूमिका म सवेदन के हेतुतत्व ले उपस्थित होता है और, जहाँ वह अपने पिछले उच्छृङ्खल अतिचरण उठाने लगता है वही उसके दप को प्रकृति का अन्तर्जात विद्रोह-तत्व चूर कर देता 1 काव्य चेतना मे लघुतम को स्थान मिले, सूक्ष्मतम स्फुरणो की परिचर्चा हो सके, विश्वा तीणता विश्वमयी हो अपने यथाथ कह सके और अपना भूला विसरा प्रसाद वाङ्गमय ॥५८॥