पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४८२

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उषा सुनहले तोर बरसती जय-लक्ष्मी सो उदित हुई, उधर पराजित कालरात्रि भी जल मे अतनिहित हुई। वह विवण मुख अस्त प्रकृति का आज लगा हँसने फिर से, वर्षा वीती, हुआ सृष्टि म शरद विकास नये सिर से। नव कोमल आठोक बिखरता हिम ससति पर भर अनुगग, सित सरोज पर क्रीडा करता जैसे मधुमय पिंग पराग। धीरे धीरे हिम-आच्छादन हटने लगा धरातल से, जगी वनस्पतिया अलसाई मुख धोती शीतल जल से । नेन निमीलन करती मानो प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने, जलधि लहरियो को अंगडाई बार बार जाती सोने। १ पाण्डुलिपि में अगराई । आशा ॥४३३॥