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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४८३

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सिंधु सज पर धग वधू अव तनिर सचित वठी सी, प्रलय दिशा की हलचल स्मृति म मान क्येि सी ऐंठी सी। देखा मनु ने वह अतिरजित विजन विश्व का नव एवात, जैसे कोलाहल सोया हा हिम शीतल जडता सा श्रात । इन्द्रलील मणि महा चपक था सोम रहित उलटा लटका, याज पवन मृदु सास ले रहा जैसे वीत गया खटका। वह विराट था हेम घोलता नया रंग भरने को आज, कौन हुआ यह प्रश अचानक और कुतूहल का था राज । प्रमाद वाङ्गमय ॥ ४३४ ।।