पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४९०

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नीचे दूर दूर विस्तृत था उर्मिल सागर व्यथित अधीर, अतरिक्ष में व्यस्त उसी सा रहा चन्द्रिका निधि गभीर । खुली उसी रमणीय दृश्य म अलस चेतना की आखें, हृदय कुसुम की खिली अचानक मधु से वे भीगी पाखे । व्यक्त नील मे चल प्रकाश का कपन सुख बन बजता था, एक अतीद्रिय स्वप्न लोक का मधुर रहस्य उलझता था। नव हो जगी अनादि वासना मधुर प्राकृतिक भूख समान चिर परिचित सा चाह रहा था द्वद्व सुखद करके अनुमान । आशा ॥ २९