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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/४८९

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उस एकात नियति शासन मे चले विवश धीरे धीरे, एक शात स्पदन लहरी का होता ज्यो सागर तोरे । विजन जगत की तद्रा म तव चलता था सूना सपना, ग्रह पथ के भालोर वृत्त से काल जाल तनता अपना। प्रहर दिवस रजनी आती थी चल जाती सदेश विहीन, एक विराग-पूण ससति म ज्यो निष्फल आरभ नवीन । धवल मनोहर चद्र बिम्ब से अक्ति सुदर स्वच्छ निशीथ, जिसमे शीतल पवन गा रहा पुलक्ति हो पावन उद्गीथ । प्रसाद वागमय ॥ ४४४ ॥