पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५१

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सस्ता है, किन्तु रोग को सस्थागत निराति और उस मूलाच्छेद या सवथा-निरास नहीं। सुतराम समस्यागत उपरागों का विलोप और सभी स्तरो पर उनका वस्तुत निवारण, सहसा और विक्रान्तत पैसे अनुभूत और अभिव्यक्त हो इसके अनुशीलन म प्रसाद भारती का कामायनी-चरण एक स्पकीय गति लेसर उठता है। उन चरणो मे, अतीत के ध्वसोस उपारण ले अनागत को समुज्वल बनाने की लय है । भौतिक जगत पर 'अमृत सन्तान' मानव के पूण स्वामित्व की एव महती कल्पना है जिसम पाच भौतिव' जगत पर उसमा पूर्ण और वस्तुत नियन्त्रण हो अशनि और कारका जिसके सास के कारण न बनें अपितु मनुज के इगिता पर वे चला करें मानवी सृष्टि को ऐसे धरारल पर ल जाने के प्रतिज्ञा कामायनी म प्रस्तुत है- "डरो मत अरे अमृत सतान अग्रसर है मगलमय वृद्धि, पूर्ण आपण जीवन-केन्द्र विची आवेगी सकल समृद्धि । देव अमफलताओ का ध्वस प्रचुर उपकरण जुटाकर आज पडा है वन मानव सपत्ति, पूण हो मन का चेतन राज । चेतना का सुन्दर इतिहास-अखिल मानव भावा का सत्य विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरा से अक्ति हो नित्य । विधाता की कल्याणी सृष्टि सफल हो इम भतल पर पूर्ण, पटे सागर, पिसर ग्रह पुज और ज्वालामुखियां हो चूर्ण । उन्हे चिनगारी-सदृश सदर्प कुचलती रहे खडी सानद, आज से मानवता की कोत्ति अनिल, भू जल म रहे न वद । जवि के फूटें वित्तने उत्स द्वीप, कच्छप डूबे उतराय किन्तु वह खडी रहे दृढ मूत्ति अभ्युदय का कर रही उपाय । विश्व की दुयलता बल वने, पराजय का बढता व्यापार हँसाता रहे उसे सविलास शक्ति का क्रीडामय सचार । शक्ति के विद्युत्क्ण जो व्यस्त विकल विखरे है हो निम्पाय । समन्वय उसका करे समस्त विजयिनी मानवता हो जाय" परस्पर विभक्त करने वाली मानवी सस्कृति की कृत्रिम ग्वाइयां पाट दी जायें (पटें सागर) सग्रहमूल केन्द्रीकरण के मणि खचित किरीट जो युगो से 'वहुतो' के अभाव के कारण बने है विघटित कर दिये जाएँ (विखरें ग्रह पुज) अशन वसन की चिन्ता शिखाओ वाली वग वैषम्य - प्रसाद वाङ्गमय ।। ६०॥