पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

निजरूप मानवता की पहचान मे आ जाय, यह स्पक वृत्ति के सहारे प्रत्यभिज्ञा की दिशा पकड कर ही सम्भव था मात्र रचना उपक्रम मे निज के सीमित भावद्रव से ढले किसी कोरे काव्य या महाकाव्य के बूते नही । मानव जाति की यात्रा के मध्यवर्ती पडावो या युगो के परिधिवर्ती कथानक लेकर ऐसे आधारभूत तथ्यो का सफल विवेचन भी सम्भव न था। इसके अथ राम, कृष्ण या बुद्ध जैसे लोकोत्तर चरित नायक प्रयोजनीय नहीं हो सकते थे अपितु उन चरितो की वह अपर्णा-जननी- मूति ही युक्त हो सकती थी जो मानवता के प्रथम चरण म अपना सवस्व समपण किये उत्पीडन और दलन को पहली बलि बनो। यहा काव्य शास्त्रीय नियमो क प्रति विद्रोह काव्य की सात्विक ( सत्वगत ) निष्ठा के लिये आवश्यक हो गया कवि ने 'करपना का काम म ले आने का अधिकार' युक्तत प्रयुक्त किया। आदि विन्दु से चलकर गुण दोपो के प्रारम्भिक रूपो को विचारते आनन्द समाधान की चैतन्यमयो दृष्टि लिये, लोकाग्नि के आदिम ताप झेलती 'सकल्प अधजल' वाली कामायनी (श्रद्धा ) के चरित नायकत्व में ही ऐसी परिकर पना साकार हो सकतो थी अन्यन और अन्यतया कदापि नही क्थमपि नही । सास्कृतिक प्रगति की कुक्षि से उद्भूत और वैषभ्य-जनित मानव समाज को समस्याओ के निदान और उपचार के लिये प्रयोजनत, दुखो की निवृत्ति और आनन्द की अवाप्ति के अथ अन्य शब्दो म 'दुस दग्ध जगत और आनन्दपूण स्वग के एकीकरण' हेतु मानव को सामूहिक चेतना को वस्तु से हेतु पयन्त उसके आसमग्र, अद्वित और समष्टि रूप मे लेना-देखना होगा। उस अन्तनिहित चेतना की खण्डात्मिका अनुभूति और अवच्छेदगत अभिव्यक्ति एक और जहा विषमता विस्तार से जगत को 'दुखदग्ध करने के लिये तदनुकूल भूमिका प्रस्तुत करती है वही दूसरी ओर चेतना के परम-साम्य भाव और उसके अन्तर्जात भावरूप अर्थात् 'आनन्दपूण स्वग का निषेध भी करती है स्वरूप विधान्ति का माग काटो से रूध देती है। स्वरूप के, अवयवी के, अगो को विदारित विक्षिप्त प्रक्षिप्त अथवा एक ही शब्द मे व्यस्त कर तद्गत अभावो के पृथकश निरसन की योजना किसी मौलिक अमोध समाधान की दृष्टि से वायवीय ही रहेगी। वैसा करना एक सामायिक और चरणात्मक उपशामक उपचार तो हो प्राक्कथन ॥ ५९॥