सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समपण लो सेवा का सार सजल ससृति का यह पतवार, आज से यह जीवन उत्मग इसी पद तल मे विगत विकार। दया, माया, ममता लो आज, मधुरिमा लो, भगाय विश्वास, हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास । बनो ससति के मूल रहस्य, तुम्ही से फैलेगी वह बेल, विश्व भर सौरभ से भर जाय सुमन के खेलो सुन्दर खेल। "और यह क्या तुम सुनते नही विधाता का मगल वरदान-- 'शक्तिशाली हो, विजयो वनो", विश्व म गूंज रहा जय गान । श्रद्धा ॥४६७॥