पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५१६

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"मधुमय वसत जीवन वन के, वह अन्तरिक्ष की लहरो मे, क्ब आये थे तुम चुपके से रजनी के पिछले पहरो मे! क्या तुम्हे देख कर आते यो, मतवाली कोयल बोली थी। उम नीरवता मे अलसाई कलियो ने आखें खोली थी। जब लीला से तुम सीख रहे कोरक कोने मे लुक रहना, तब शिथिल सुरभि से धरणी मे बिछलन न हुई थी? सच कहना। जब लिखते थे तुम सरस हंसी अपनी, फूलो के अचल मे, अपना कलकठ मिलाते थे झरनो के कोमल कल कल म । निश्चित आह ! वह था कितना उरलास, काकली के स्वर म । आनद प्रतिध्वनि गूंज रही जीवन दिगत के अबर म। काम ॥४७३॥