पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५१७

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शिशु चित्रकार चचलता मे क्तिनी आशा चिनित करते ! अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी जीवन की आंखो मे भरते । लतिया घूघट से चितवन की वह कुसुम दुग्ध सी मधु धारा, प्रावित करती मन अजिर रही, था तुच्छ विश्व वैभव मारा। व फूर और वह हंसो रही वह सारम, वह निश्वास छना, यह क्लरव, वह सगीत भर वह कोलाहल एपात वना।" पहले कहत कुछ माच रहे पर निश्वाम निराशा की, मनु अपने मन को वात, रसी फिरभीन प्रगति अभिलापा की। प्राममय ॥४४॥