पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

माधवी निशा की अलमाई अरको म लुकते तारा सो, क्या हो सूने मर-अचल मे अत सलिला की धारा सी। थुतियो मे चुपके चुपके मे कोई मधु चारा घोल रहा, इस नीरवता के परदे मे जैसे कोई कुछ बोल रहा । है स्पश मलय के झिलमिल सा सज्ञा को आर सुलाता है, पुलक्ति हो आखें बन्द किये तद्रा को पास बुलाता है। वीडा है यह चचल कितनी विभ्रम से घूघट खीच रही, छिपने पर स्वय मृदुल कर से क्यो मेरी आखें मीच रही उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा इस उदित शुक्र की छाया म, ऊपा सा कौन रहस्य लिये सातो किरनो की काया मे। काम ४७७॥