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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५१९

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उन नृत्य शिथिल निश्वासो की, वित्तनी है मामयी माया, जिनमे समीर छनता छनता बनता है प्राणा की छाया । आकाश-रध्र हैं पूरित से यह सृष्टि गहन सी होती है, आलोक सभी मूच्छित साते, यह आस थको सी रोती है। सोदय्यमयी चचल कृतियों बनकर रहस्य हैं नाच रही, मेरी आखा को रोक वही आगे बढने म जांच रही। मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी, वह सब क्या छाया उलयन है ? सुन्दरता है इस परदे म क्या अय धरा कोई धन है ? मेरी अक्षय निधि | तुम क्या हो पहचान सकूँगा क्या न तुम्हे ? उलझन प्राणो के धागो को सुलझन का समझू मान तुम्हे । प्रसाद वाङ्गमय ॥ ४७६ ।।