पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५३४

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नई इच्छा खीच लाती, अतिथि का सक्त- चल रहा था सरल शासन युक्त सुरुचि समेत । देखते थे अग्नि शाला से कुतूहल युक्त, मनु चमत्कृत निज नियति का खेल बधन मुक्त 1 एक माया आ रहा था पशु अतिथि के साथ । हो रहा था मोह करणा से सजीव सनाथ । चपल कोमल कर रहा फिर सतत पशु वे अग, स्नेह से करता चमर उद्ग्रीव हो वह सग। कभी पुक्ति रोम राजी से शरीर उछाल, भांगरो से निज वनाता अतिथि सतिधि जाल । कभी निज भोले नयन में अतिथि वदन निहार, मकल साचत स्नेह देता दृष्टि पथ से ढार, वासना ॥४१३॥