पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५३६

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विश्व मे जो सरल सुन्दर हो विभूति महान् सभी मेरी है, मभी करती रहे प्रतिदान । यही तो, मै ज्वलित वाडय वन्हि नित्य अशात, सिन्धु लहरा सा करें शीतल मुझे सब शात !' आ गया फिर पास क्रीडाशील अतिथि उदार, चपल शैशव सा मनोहर भूल का ले भार। कहा "क्या तुम अभी बैठे हो रहे धर व्यान, देखती है आँख कुछ, सुनते रहे कुछ कान- मन कही, यह क्या हुआ है ? आज कैमा रग?" नत हुमा फण दृप्त ईर्पा का विलीन उमग । और महलाने लगा कर-कमल कोमल कात, देख कर वह रूप सुपमा मनु हुए कुछ शात । वामना ॥ ४९५३