पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कहा "अतिथि | कहा रहे तुम किधर थे अज्ञात, और यह सहचर तुम्हारा कर रहा ज्यो बात- किसीसुलभ भविष्य की, क्या आजअधिक अधीर? मिल रहा तुमसे चिरतन स्नेह सा गभीर ? कौन हो तुम खीचते यो मुझे अपनी ओर और ललचाते स्वय हटते उपर की ओर । ज्योत्स्ना निझर । ठहरती ही नहीं यह आख, तुम्हे कुछ पहचानने की खो गयी सी साख । कौन करण रहस्य है तुमम छिपा छविमान ? लता वीरुध दिया करते जिस छाया दान । पशु कि हो पापाण सब म नृत्य का नव छद एक आलिंगन बुलाता सभी को सानद । राशि गशि विखर पडा है शात सचित प्यार, रख रहा है उसे ढाकर दीन विश्व उधार । देखता हूँ चकित जैसे ललित लतिका लास, अरुण धन की सजल छाया म दिनात निवास- और उसम हो चला जैसे महज सविलास, मदिर माधव यामिनी का धीर पद वियास । आह यह जो रहा सूना पडा काना दीन, ध्वस्त मदिर का वसाता जिसे कोई भी न- १ कौन गीपक से माधुरी नावण १९६८ सवत म वाइसवी पक्ति पयत प्रकाशित । -- प्रमाद वाङ्गमय ११४२६॥