पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४

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वह जहाँ का तहां पड़ा रहा। विलक्षण और चमत्कार भरे तकासव को उसे लत पड़ गई और मध्य वग के ऐसे वाग्विलास उसके लिये एन्द्र जालिक आक्पण-केन्द्र वन गए। उसे बताया तो जाता है कि राम जैसा आचरण करो रावण जैसा नहो, किन्तु अपने को राम मत मानो, अथत अपने राम को जानो नहीं। यह क्या विडम्बना नही? अनुग्रह को महिमा के सन्दर्भ में यद्यपि गुंसाई जी ने बताया 'जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई' किन्तु विकल्प धारा के 'तुमुल कोलाहल' में ऐसी 'हृदय की बात' कोन सुनता फलस्वरूप वह (मानव) अपने को राम न जान सका फिर वैसा आचरण कैसे करता ? सुतराम समाज के रावणीव्रण दाह और पीडा से उसे विकल किये है। साहित्य ने इस दिशा म समाज का क्या उपकार किया? उस पर सर्वाधिक गुस्तर दायित्व था। दुख दग्ध जगत और आनन्दपूण स्वग के एकीकरण को साहित्य मानने का अथ होगा दानो को स्वतन्त्र सत्ता एव तज्जननी वेपम्य के उपसगां का निरास और निषेध और वैसे साहित्य मे सवमागत्य की सवसुन्दरता से मण्डित समाजमूर्ति का चिन सहज हो प्रतिफलित रहेगा। विडम्बनाओ के विद्रोह म उन निबन्धा मे स्थापना मिलती है। चिन्तन और अनुभूति की तपस्या म कामायनी के लिये वह पीटिका प्रस्तुत हुई जिस पर समष्टिभूत मानव अपने मौलिक समस्या का समाधान यथाथ के वास्तविक विम्ब आदश के निमल मुकुर म पा सके, और जिसके पान राम, कृष्ण और बुद्ध के भी पूवज हो और, जो सृष्टि के उद्भव से लय पयन्त की बहुस्तरणीय क्या कह सके । पान महत्ता और भूमिका स्फोति के सन्दभ मे ये तथ्य अवलोकनीय है जिसके आलाक में दिव्याक्षरो मे अकित मानव भावो के सत्य से समन्वित 'चतना का सुन्दर इतिहास निखिल मानव भावो का सत्य विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरो से अकित हो नित्य' (श्रद्धा सग) कामायनी मे देखा जा सकता है । रूपक सत्ता पर, चैतन-दृष्टि से विचार के वाद पदार्थ दृष्टि से भी उसे देख लेना है । गुणमयी प्रकृति का अस्तित्व गुणो के विपमावस्थागत परस्पर घात मे स्फुरित है। मात्रा और स्फूर्तिगत अनवरत परिवत्तनो से गुणो मे परिच्छिन्नत्वेन उ मुख विमुख, मगत विसगत, संयुक्त वियुक्त आदि द्वन्द्वात्मक विरोधिभावगत वस्तुतत्व पदाथ रूप में परिणत हो जाते हैं जिनके नानात्व की सहति के काय को जड से चैतन का विकास मानने वाले विश्व कहते है । अनेकात्म विचारधारा की प्राक्कथन ॥६३॥