पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५५

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विश्रान्ति वा यह स्थल होता है। वही गुणो को भी पदार्थरूप या रूपाधीन माना जा जाता है। गुणो। घटन मे प्रस्तुत तत्व सहति रूपाकार होपर यत प्रतिक्षण प्रतिपद परिवतनाधीन है अत उनमे, अन्य शब्दो मे घटना मे तो अनित्यता का आरोप सहज है वितु घटित विश्व की तथता और वतमानता का वस्तुगत निषेध कहाँ ? विश्व चाहे सहतिजन्य वहा जाय अथवा स्वोन्मिष्ट विन्तु है एक घटना का पदाय भूत कठोर सत्य । और, इसे ही अमत्य मान बैठो से मनोपियो । तत्व चिन्तन को कहा ठाव मिलेगा? जगत मिथ्या कहने वालो की शास्त्रीय व्यायामशाला फिर कहा होगी? पदाचित, यह उपक्रम कुछ वैसा ही होगा जैसा कृषि-वाणिज्य व योगक्षेम को उपेक्षा और हेयता दते समग्र मेदिनीमण्डल को पीतपाय से ढंक कर भी गृहपनि के द्वार से पिण्डपात की अभिलापा। इस घटन क्रिया से समग्र भूत-तथता वो सहति यो एवं पटना- प्रवाह के रूप म लेने की सुविधा हो जाती है और फिर एक ऐसा अद्धविराम आता है जो कुछ के लिये पराविश्राति का स्थल बन जाता है, फलत प्रमाणवार्तिक अलमिति के स्वर म 'सहती हेतुता तेपाम्' कह देता है। किन्तु उस कारण भूत सहति के कारण पर विचार की आवश्यक्ता न हुई आर सुविधानुमार मोमासा वही राय दी गई। ध्यातव्य है कि सहति पनिया म सहत इकाइयां सहत हो कर भी एकी भूत ही होती' इयत्तायें मिलित होकर भी आस्तित्व रमतो है, उनकी प्रकृति केवल अशात्मक्तया उपहत होती है। उनके गुणो म साम्य नही आता सुतराम प्रकृति का सवथा निरास नहीं होता। यदि उनम साम्य आ जाय तो फिर सवत की दशा होगी विवत्त की नहीं। फिर सहति म हेतुता ही तो है हेतु पहा? पदाथगत नानात्व की सहति से चेतना के विकास की करपना करते हुये भी चेतनगत चेतना की चेतना सामा यत अनदेखी रह जाती है । फलत पदाथगत नानात्व की अभ्यास-दृष्टि चेतना मे भी नानात्व का आरोप करती है सुतराम् अद्वय चैत य के विस्मृति की पहली छाप लिये द्वयता तत उसके परवर्ती मुद्राका से बनेकात्म-अचेतन पदाथ भूतबहुता के स्थान पर पदाथ-नानात्व की सहति से चेतना का विकास मान उमकी ( चतना की) परिच्छेदा म कल्पना कर ली जाती है, फलत पदाथभूत चैतन्य अपने अगो म स राग और सरक्त प्रसाद वाङ्गमय ।।६४ ॥