पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५४४

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कुटिल कुतल से बनातो काल माया जाल, नीलिमा से नयन की रचती तमिस्रा माल । नीद सी दुर्भेद्य तम की, फेंकती यह दृष्टि, स्वप्न सी है विसर जाती हँसी की चल सृष्टि । हुई केंद्रीभूत सी है साधना की स्फूर्ति, दृढ सकल सुकुमारता म रम्य नारी मूति । दिवाकर दिन या परिश्रम का विक्ल विश्रात, मे पुरुप शिशु सा भटकता आज तक था भ्रात । चन्द्र की विश्राम रावा वालिका सी कात, विजयिनी सी दीखती तुम माधुरी सी शात । पददलित सी थकी व्रज्या ज्यो सदा आक्रात, शस्य श्यामल भूमि मे होती समाप्त अशात । आह । वैसा ही हृदय का बन रहा परिणाम, पा रहा हूँ आज देकर तुम्ही से निज काम । आज ले लो चेतना का यह समपण दान । विश्व रानी । सुन्दरी नारी । जगत की मान " वासना ॥५०३॥