पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५५५

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"हाँ ठीक, परन्तु बतायोगी मेरे जीवन का पथ क्या है ? इस निविड निशा म ससृति की आलोकमयी रेखा क्या है। यह आज समझ तो पायी हूँ मैं दुबलता मे नारी हूँ, अवयव को सुन्दर कोमलता लकर में सब से हारी हूँ। पर मन भी क्या इतना ढीला अपने ही होता जाता है। घनश्याम खड सी आखो मे क्यो सहसा जल भर आता है ? सवस्व समपण करने की विश्वास महा तरु छाया मे, चुपचाप पडी रहने की क्यो ममता जगती है माया मे? छाया पथ मे तारक यति सी झिलमिल करने की मधु लीला, अभिनय करती क्यो इस मन मे कोमल निरीहता श्रम शीला ? प्रसाद वाङ्गमय ॥५१४॥