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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५६०

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कर्म सूत्र समेत सदृश थी सोम लता तब मनु को, चढी शिजिनी मी, खीचा फिर उसने को। जीवन धनु वे, हुए अग्रसर उसी माग मे छुटे तीर से फिर यज्ञ-यज्ञ की क्टु पुकार से रह न सके अव थिर वे। मलिभाषा, भरा कान मे क्थन काम का मन मे नव लगे सोचने मनु अतिरजित उमड रही थी आशा। ललक रही थी ललित लालसा सोम-पान की जीवन के उस दीन विभव मे जेसी बनी प्यासी, - उदासी। जीवन की अविराम साधना भर उत्साह खडी थी, ज्यो प्रतिकूल पवन मे तरणी गहरे लौट पड़ी थी। 7 कम ॥५१९॥