पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५६१

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श्रद्धा ये उत्साह वचन, फिर माम प्रेरणा मिल के, भ्रात अथ बन थागे आये बने ताड थे तिल के। है, बन जाता मिद्धात प्रथम फिर पुष्टि हुआ करती वुद्धि उसी ऋण को सबसे ले सदा भग करती no मन जब निश्चित सा कर लेता बोई मत बुद्धि देव-चल से प्रमाण का सतत निरखता है अपना, सपना । पवन वही हिलकोर उठाता वहो तरलता वही प्रसिध्वनि अत्तरतम की छा जाती नभ तल मे। सदा समथन करती उसकी तकशास्त्र को पीढी, "ठीक यही है सत्य । यही है उन्नति सुख की सीढी । प्रसाद वाङ्गमय ॥५२०॥