पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५८५

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"निज उदगम का मुख बद किये कब तक सोयेंगे अलस प्राण, जीवन की चिर चचल पुकार रोये कब तक, है कहाँ त्राण । श्रद्धा का प्रणय और उसकी भारम्भिक सीधी अभिव्यक्ति जिसमे व्याकुल आलिंगन का अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति । भावना मयी वह स्फूर्ति नही नव नव स्मित रेखा मे विलीन, अनुराध न तो उल्लास, नही कुसुमोद्गम सा कुछ भी नवीन । आती है वाणी मे न कभी वह चाव भरी लीला हिलोर, जिसम नूतनता इठलाती हो चचल मरोर । नत्य मयी प्रसाद वाङ्गमय ॥५५०॥