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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/५८७

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'दिन भर थे वहाँ भटकते तुम' बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह "यह हिंमा इतनी है प्यारी जो भुलवाती है देह-गह ! में यहाँ अकेली देख रही पथ, मुनती मी पद ध्वीरितात, पानन मे जन तुम दौड रहे मृग के पीछे बन कर अपात ! ढल गया दिवस पीला-पीला तुम रक्ताम्ण बन रहे धूम, देवो नीडा म विहग युगल अपने शिशुमा को रहे चूम । उनके घर मे कोलाहल है मेरा सूना है गुफा द्वार। तुमको क्या ऐमी वमी रही जिमके हित जाते अन्य द्वार ?' प्रसाद वाङ्गमय ॥५५४॥